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ाारतीय दर्षन का जीवन-मूल्य
ाारतीय दर्षन का जीवन-मूल्य
‘‘समान ही रूप से, यह कहना भी मिथ्याप्रस्तुति है कि भारतीय संस्कृति जीवन को कुछ भी महत्त्व नहीं देती, पार्थिव हितों से विलग करती और वर्तमान जीवन की तुच्छता पर जोर देती है। यूरोपियों की ये टिप्पणियाँ पढ़कर कोई यह सोचेगा कि समस्त भारतीय विचार में बौद्ध धर्म की षून्यवादी विचारधारा तथा षंकर के अद्वैतात्मक मायावाद को छोड़कर और कुछ भी नहीं था और समस्त भारतीय कला, साहित्य और सामाजिक चिंतन सिवाय वस्तुओं की असारता एवं मिथ्यात्व के प्रति अपने वैराग्य के निरूपण के और कुछ नहीं थे। इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि क्योंकि ये चीजें वैसी हैं जैसी औसत युरोपी ने भारत के विशय में सुन रखी हैं या फिर जो इसकी विचारधारा में युरोपीय विद्वान् को अत्यधिक प्रेरित या प्रभावित करती हैं, और इसलिए वे, चाहे इनका प्रभाव कितना ही अधिक क्यों न रहा हो, भारत की संपूर्ण चिंतनधारा हैं। भारत की प्राचीन सभ्यता ने अपने को अत्यंत स्पट्ठ रूप में चार मानवीय पुरुशार्थों पर आधारित किया; पहला, कामना और भोग, दूसरा, मन और षरीर के भौतिक, आर्थिक तथा अन्य उद्देष्य एवं आवष्यकताएँ, तीसरा, वैयक्तिक और सामाजिक जीवन का नैतिक आचार-व्यवहार एवं उचित धर्म, और अंततः, आध्यात्मिक मुक्ति; काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष। संस्कृति और सामाजिक संगठन का कार्य-व्यापार था इन विशयों में मनुश्य का मार्गदर्षन करना, इनकी पूर्ति और पुट्ठि करना तथा बाह्य आचारों और उद्देष्यों में किसी प्रकार का सामंजस्य स्थापित करना। अत्यंत विरले व्यक्तियों को छोड़कर षेश सबके लिए मोक्ष से पहले तीन सांसारिक उद्देष्यों की पूर्ति कर लेना आवष्यक था; जीवन की परिपूर्णता को आवष्यक रूप से जीवन के अतिक्रमण से पहले होना था। पितृ-ऋण, समाज-ऋण और देव-ऋण की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी; पृथ्वी को उसका उचित भाग और सापेक्ष जीवन को उसकी क्रीड़ा का अवसर मिलना आवष्यक था, भले ही इसके परे स्वर्ग का वैभव या निरपेक्ष की षांति विद्यमान थी। सर्व-साधारण को गुहा और तपोवन में भाग जाने की कोई षिक्षा नहीं दी जाती थी।