अयोध्या में श्रीअरविंद साधनालय और बाबाजी श्री रामकृष्ण दासजी महाराज

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९ सितंबर १९५९ को, अमावाँ की श्रीमती रानी भुवनेश्वरी कुअर पत्नी श्रीमान् राजा बहादुर हरिहर प्रसाद नारायण सिंह ने अपनी भक्ति, प्रेम और स्नेह के कारण श्रीअरविंद आश्रम, पांडिचेरी की श्रीमाताजी को अयोध्या में श्रीअरविन्द और श्रीमाताजी के कार्य के प्रचार-प्रसार हेतु ३ एकड़ भूमि का एक भूभाग उपहार में दिया। वर्ष १९५९ से १९८६ तक स्वर्गीय बाबाजी श्री रामकृष्ण दासजी ने इस भूमि की देखभाल और रखरखाव किया, जिन्हें श्री हनुमान मंदिर के निर्माण और श्रीअरविन्द के पवित्र देहांशों को स्थापित करने के लिए समाधि बनवाने की प्रेरणा प्राप्त हुई। श्रीअरविन्द के पवित्र देहांश २९ मार्च १९८९ को स्थापित किये गये। वर्ष १९८६ से २०१३ तक श्रीमाताजी की ही कृपा से श्री शिव कुमार खेतान ने श्रीअरविन्द के पवित्र देहांशों की स्थापना के समय आने वाले भक्तों के ठहरने आदि के लिए एक अतिथि गृह के निर्माण के साथ ही साथ साधनालय में आवश्यक निर्माण करवाने के कार्य को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष १९८६ के बाद से श्री शिव कुमार खेतान ने सभी आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था का और अयोध्या केंद्र के वास्तविक विकास और प्रबंधन का कार्यभार वर्ष २०१३ में तब तक संभाला जब कि श्रीअरविन्द आश्रम ट्रस्ट पुदुच्चेरी ने सीधे ही केंद्र की देखभाल करना शुरू नहीं कर दिया।

बाबाजी श्री रामकृष्ण दासजी के विषय में बोलते हुए पद्म भूषण प्रोफेसर मनोज दास ने कहाः ‘‘वे कई मायनों में असाधारण थे। उनका जन्म १४ अगस्त १९०८ को उड़ीसा के रायरपुर नामक एक गाँव में हुआ जो कि अब जगतसिंहपुर जिले में है। परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि वे सोलह वर्ष की आयु में सरकार के निपटान विभाग में नौकरी करने के लिए बाध्य हुए। लेकिन आंतरिक रूप से वे तब से ही आध्यात्मिक विषयों में तल्लीन हो गए थे जब से वे पढ़ने में सक्षम हुए थे। एक दिन उन्होंने अपने परिवेश को अलविदा कह दिया और अपनी साधना के लिए एक मार्गदर्शक की तलाश में, पवित्र शहर अयोध्या पहुँचे और एक प्रसिद्ध गुरु द्वारा उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया गया। संभवतः इसी समय परंपरा के अनुसार उनका मूल नाम कृष्णचंद्र राउत्रे बदल कर रामकृष्ण दास हुआ, जो कि पुरानी पारंपरिक पहचान के अंत और एक नए जीवन की शुरुआत का सूचक है। 

यद्यपि उनमें कभी गुरु बनने की लालसा नहीं थी, तो भी उनके सभी से मिलनसार व्यक्तित्व और बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती श्रद्धा से आकृष्ट होकर जिज्ञासु और पिपासु जन शीघ्र ही उनकी ओर खिंचे चले आए। इनमें प्रसिद्ध राजवंशीय जन, न्यायाधीश और शिक्षाविद् शामिल थे। यद्यपि इन लोगों की प्रकाश की खोज में वे स्वयं भारी रूप से सहायक सिद्ध हुए, परंतु उनकी अपनी खोज उन सबसे भी तृप्त नहीं हुई जिन्हें हम आध्यात्मिक वास्तविकता के उदात्त स्तर मानते हैं। श्री रामकृष्ण दास – जिनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी कि वे शिष्यों की नित्य बढ़ती मंडली के मुखिया बन सकते थे – का यही धन्य और दुर्लभ गुण था जिसने मूल कृतियों के माध्यम से या फिर उनके विषय में कुछ प्रामाणिक लेखों के माध्यम से श्रीअरविन्द और श्रीमाँ के जगत् से उनका (श्रीरामकृष्ण दास का) परिचय कराया। उनकी परिपक्व अंतरात्मा को उनमें उस परम को पहचानने में देर नहीं लगी जिसकी वे खोज कर रहे थे। अतः जरा भी हिचकिचाए बिना वे अयोध्या में अपने आश्रम को छोड़कर पांडिचेरी चले गए और २ फरवरी १९४५ को आश्रम में शामिल हो गए। 

…जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके पुराने प्रशंसक उन्हें खोजते-खोजते उनके नए निवास स्थान तक पहुँच गए। इनमें अमावाँ रियासत के राजा और रानी भी थे। जब बाबाजी महाराज अयोध्या में थे, तो उन्होंने उन्हें अद्वितीय पुरातनता वाले शहर, राम जन्मभूमि या भगवान् राम के पवित्र जन्मस्थान के सबसे प्रसिद्ध स्थान के निकट एक बड़े भूभाग का एक अनमोल उपहार भेंट किया था। अब शाही युगल अपने संकल्प को पूरा करने के लिए उत्सुक था। बाबाजी ने उन्हें वह भूमि श्रीमाताजी को अर्पण करने की सलाह दी, जिसे उन्होंने सहर्ष पूरा किया। श्रीमाताजी ने उस भेंट को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

हम कल्पना कर सकते हैं वैराग्य-उन्मुख आध्यात्मिकता के पारंपरिक विचारों में डूबे हुए और अनेकों लोगों के लिए आध्यात्मिक संरक्षक की भूमिका निभाने वाले व्यक्ति के लिए श्रीअरविन्द आश्रम के इतने सारे अन्य साधकों के साथ ही एक साधक के रूप में शामिल होकर, श्रीमाँ को परमोच्च मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करते हुए उनके द्वारा चुने गए किसी भी क्षेत्र में अपनी सेवाएँ प्रदान करने और एक मूलभूत रूप से भिन्न जीवन शैली को स्वीकार करने की कठिनाई को। आश्रम जीवन के अपने अधिकांश समय में बाबाजी या बाबाजी महाराज, जैसा कि उन्हें प्यार से बुलाया जाने लगा था, आश्रम के भोजनालय में बर्तन धोने का कार्य करते थे। शारीरिक शिक्षा के वर्ग के एक सदस्य के रूप में उसके नियमित कार्यक्रम में वे शायद ही कभी अनुपस्थित रहे हों। अनुशासन का गहरा बोध और समय के सदुपयोग पर गहरी पकड़ रखने के साथ-साथ वे अध्ययन, लेखन, और आगंतुकों के सवालों और पत्रों, जिनकी संख्या नित्य बढ़ती ही जाती थी, के उत्तर देने में समर्पित भाव से लगे रहते थे…’’

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